हाँ तो
मित्रों बात कुछ
ऐसी है कि
ये बात है
गर्मियों की और
ये बात हम आपको इसलिए
बता रहे हैं
जिससे कड़ाके के
जाड़े में गर्मियों
का किस्सा सुनने
से बदन में कुछ
गर्मी आ जाए ।
तो हुआ कुछ
ऐसा कि गर्मियों
में हमें प्रात:
सात बजे तक
विद्यालय पहुँचना होता
था और छह
बजे रेलगाड़ी पकड़नी
होती थी और
05:30 पर घर
से निकलना होता
था । इत्ती सुबह सड़क
के कुत्ते भी
भौंकने में आलस
करते थे ।
एक दिन
हमने सोचा कि
पिछले सात दिनों
से सुबह – शाम पसीने
से नहा रहे
हैं तो चलो
आज पानी से भी नहा
लेते हैं । परिणामत: हमें
घर से निकलते – निकलते 05:40
हो गया । अब स्टेशन
पहुँचना था ठीक
6 बजे तो क्या करते । भागना हम चाहते नहीं
थे । वर्ना यूपी वाले
बिना बात के
सवेरे – सवेरे 9 तीव्रता
का भूकम्प झेल
जाते । सोचा क्यों न
किसी वाहन का
सहारा ले लिया
जाए । पर इत्ती
सुबह तो सड़क
के कुत्ते भी
भौंकने में आलस
करते थे तो
वाहन कहाँ से
मिलता ।
अचानक से
हमें एक रिक्शा नामक
एक चीज दिखाई
दी । हमने रिक्शे वाले
से कहा – “
स्टेशन चलोगे ? ”
रिक्शेवाले ने कहा
– “ काहे न चलेंगे
बाबूजी । घर से निकले
तो रोजी कमाने
ही हैं । आइए
बैठिए । ”
बस फिर
क्या था रिक्शेवाले
के पैर पैडल
पर तेजी से
चलने लगे । स्टेशन पहुँचकर हमने
रिक्शेवाले को 5
का नोट थमाया
और शीघ्रता से
अंदर निकल लिए । शीघ्रता से इसलिए
ताकि वो हमें
रोककर दो सवारियों
का भाड़ा न
ले ले । खैर , हमें
ट्रेन मिल गई थी ।
अगले दिन
हमें बिना नहाए
ही देर हो
गई और सुबह
वही रिक्शे वाला
मिल गया । फिर हमने
जेब हल्की की
और समय से
स्टेशन पहुँच गए । अब
तो ये प्रतिदिन
का सिलसिला हो चला
। प्रतिदिन हमें देर
होती और वो
हमें उसी स्थान
पर मिलता और
स्टेशन छोड़ता । एक दिन हम आश्चर्य्जनक
रूप से ठीक
05:30 पर तैयार
हो गए । हम पक्के
पर थे कि
आज तो 5
रुपए बचाकर रहेंगे । हम
सड़क पर पहुँचे
और पैदल चलना
आरम्भ किए । तभी हमें
पीछे से एक जानी
– पहचानी ध्वनि सुनाई
दी - “ अॅरे ! सुनिए सेठ जी
! ”
हमने अपना
पेट घुमाया तो
सामने वही रिक्शे
वाला था । वो घबराया
हुआ – सा था । बोला – “ अरे ! सेठ जी आज
आप जल्दी निकल
गए । चलिए बैठिए हम
आपको स्टेशन छोड़
देते हैं । ”
वैसे तो
हमारे पास समय था
। पर उसके आग्रह
को हम मना
न कर सके । उसके
रिक्शे पर बैठे
और चल दिए ।
रस्ते में
वो बोला – “ सेठ जी , आप तो हमरे
जीवन का एक
महत्त्व्पूर्ण अंग बन
गए हो । ”
हमने पूछा – “ कैसे ? ”
रिक्शेवाले भैय्या
जी पैडल मारना
रोककर बोले – “ अरे ! सेठ जी
सीधी सी बात है
। हमरी बच्ची का
दाखिला इसी साल
छठवीं कक्षा में
हुआ है । अब ऊ
बड़ी हुई गई है
। दूर – दूर से आने
वाली लड़कियाँ उसकी
सहेलियाँ बन गईं
हैं । उसकी सहेलियाँ इंटरवल
में इमलियाँ खातीं
हैं । ई देखकर हमरी
बिटिया ने हमसे
जेबखर्च माँगा । इसईलिए हम
बिटिया के स्कूल
जाने से पहले
एक चक्कर मार
देते हैं और
ई पैसा अपनी
बिटिया को जेबक्खर्च
के लिए दे
देते हैं । जिस दिन
अपको पहली बार
स्टेशन छोड़ा था । उसी
दिन से अपनी
बिटिया को जेबचर्च
देना शुरु किए । ”
थोड़ी देर
बाद वो बोला – “ लो सेठ जी , आपका स्टेशन आ गया
। ”
हमने भी
जेब से 5
रुपए निकालकर उसे
दे दिए । रुपए देखकर
उसकी आँखों में
एक चमक सी आ गई
और वो बोला – “ आपका स्टेशन
और हमारी बिटिया
की खुशी दोनों
ही आ गईं । ”
सिलसिला यूँ
ही चलता रहा । एक
दिन हम उसके
रिक्शे में बैठे
वो बातूनी तो
था ही , अपनी बिटिया
के बारे में
सुनाने लगा – “ सेठ जी , आज तो हमरे
लिए बहुत बड़ा
दिन है । ”
हम बोले – “ आज कैसे
बड़ा दिन है भई
। वो तो
दिसम्बर में होता
है । उसकी हमें छुट्टी
भी मिलती है और
हम उस दिन पाँव पसारकर
देर तक सोते हैं
। ”
वो बोला – “ अॅरे ! नहीं सेठ जी ऊ
वाला नहीं । आज का
दिन तो हमरे
लिए बड़ा है । आज
हमरी बिटिया के
स्कूल में दौड़
का खेल होने
वाला है । हमरी बिटिया
बहुत अच्छा भागती है । हमें पूरा
यकीन है । वही जीतेगी । ”
हम बोले – “ अच्छा , ऐसा वाला
बड़ा दिन । तब तो
हमारा भी आज
बड़ा दिन है । आज हमारे
अधिकारी भी सभी
मास्टरों की एक
सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता
करा रहे हैं । हमने
तैयारी तो बहुत
की है । अब देखो
कौन जीतता है । ”
रिक्शे वाला
बोला – “ अरे ! सेठ जी , आप ही जीतोगे । आप
भले आदमी दीखते
हो । हमारी दुआएँ भी
आपके साथ हैं और
गरीब की दुआएँ
तो ऊपरवाला जरूर
सुनता है । ”
हम बोले – “ वैसे तुम्हारा
ऊपरवाला अगर उनकी
दुआएँ लें जो
गरीब नहीं हैं
तो हमारी भी
दुआएँ तुम्हारी बेटी
के लिए । ”
रिक्शेवाला बोला – “ अरे ! जरूर सुनेगा
सेठ जी ।
ऊ देर – सवेर सबकी
सुनता है । ”
तभी सामने
से एक बिल्ली
तेजी से रस्ता
काट गई । हम बोले – “ अर्रर्रर्र.......
ब्रेक लगाओ । ”
रिक्शेवाले ने
भी बहुत तेजी
दिखाई पर बिल्ली
के काटे हुए
रस्ते को रिक्शे
के पहिए पार
कर ही गए । रिक्शेवाले ने
हमें देखा और
हमने उसे ।
रस्ता पार हो
चुका था और
अब कुछ नहीं
हो सकता था । रिक्शेवाले 10
सेकण्ड वहीं खड़ा
होकर कभी हमें , कभी अगले रस्ते
को देखता रहा । फिर
उदास मन से
धीरे – धीरे पैडल मारने
लगा ।
थोड़ी दूर आगे
चलने पर हम
बोले – “
क्या ये
सच है कि
बिल्ली रस्ता काट
दे तो अशुभ
होता है ? ”
रिक्शेवाला बोला – “ होता तो
है सेठ जी ! कई
बार तो बनते
काम बिगड़ जाते
हैं । यूँ समझिए भाग्य , दुर्भाग्य हो जाता
है । ”
हम बोले – “ चलो कोई
बात नहीं । फिर तो हम सुरक्षित
हैं । क्योंकि सबसे पहले
तुम्हारे रिक्शे ने
बिल्ली के काटे
को पार किया
फिर तुमने । यानि हमारे
ऊपर तो दुर्भाग्य
का कोई प्रभाव
नहीं होगा । ”
रिक्शेवाला बोला - “ पर बाबूजी , हम तो हियाँ
आपकी वजह से
आते हैं । वर्ना हम
तो आते ही
नहीं । इसईलिए ई दुर्भाग्य
तो आप हई
के हिस्से जाएगा । ”
हमारे और
रिक्शेवाले का फालतू
की चटपटी बातों वाला रिश्ता
अब कड़वा हो
चला था ।
हम बोले – “ अरे ! पर ऐसे
कैसे दुर्भाग्य हमारा
हुआ ?
ये भी
तो हो सकता
है कि आज
तुम्हारी बेटी को
अव्वल आना ही
न हो । इसलिए बिल्ली
ने तुम्हारा रस्ता
काटा हो । हमें खामखाँ
फाँस रहे हो । हारेगी
तो तुम्हारी बेटी , हम नहीं । ”
दुर्भाग्य के
डर से हम
बिना लाउडस्पीकर के ही लाउड
स्पीकने लगे थे । जबकि
रिक्शेवाला गरीब होने
के कारण नम्रता
को छोड़ नहीं
पा रहा था । वो
बोला – “ पर बाबूजी ! हम तो
केवल अपनी मजूरी
कर रहे हैं । मालिक
कहता है मंदिर
चलो तो मंदिर
जाते हैं , मालिक
कहता है बाजार
चलो तो बाजार
जाते हैं और
मालिक कहता है
कि स्टेशन चलो
तो स्टेशन आ
जाते हैं । हम अपनी
मर्जी से थोड़े
ही आपको यहाँ
लाए हैं । बल्कि आपकी
मर्जी से हम
हियाँ आए हैं । इसईलिए दुर्भाग्य हमारा
न हुआ , आपका हुआ । ”
रिक्शेवाला दुर्भाग्य
हम पर चेंपने
की पूरी फिराक
में था । पर हम
भी कोई कम
न थे । अरे ! दुर्भाग्य भी कोई
अपनाने की चीज थी
। सो हम
भी जिरह पर
आ गए – “ नहीं , दुर्भाग्य हमारा
न था , न होगा । अगर
हमारा ही काम
बिगड़ना होता तो
बिल्ली हमारा रास्ता
तब ही काट
देती जब हम पैदल चल
रहे थे । पर तुम्हारे
रिक्शे पर बैठने
के बाद रस्ता
कटा है । इसका सीधा – सा
अर्थ है । दुर्भाग्य तुम्हारा
है । तुम्हारी बेटी हो
सकता है आज
न जीते । पर हम
अवश्य जीतेंगे । ”
रिक्शेवाला बोला – “ पर सेठ जी
! हमरी बिटिया ने
बहुत मेहनत की
है और उसकी
माँ ने भी । पिछले
तीन रोज से
हमरी मेहरूआ एक
हई रोटी खा
रही है और
बाकि हमरी बिटिया
को दे रही
है ताकि दौड़
में उसे कमजोरी
न लगे । अगर हमरी
बिटिया न जीती
तो दोनों का
दिल टूट जाएगा । ”
हमारा क्रोध
बढ़ता ही जा
रहा था , हम बोले – “ अरे ! तो क्या
तुम्हारी बिटिया को
जिताने को तुम्हारा
दुर्भाग्य अपने ऊपर
ओढ़ लें ? और हमने
भी तो निरी
मेहनता की है । नौकरी
के बाद घर
आकर ढेर सारा
खाना खाते हैं
और फिर ढेर
सारा सोते हैं , दुनिया भर की
सोशल साइट्स को
जीवित रखने में
अपना योगदान देते
हैं । फिर जो 15-20
मिनट बचते हैं
उनमें पढ़ते हैं । हम
क्या कम मेहनती
हैं ?
हम क्या
हार जाएँ तुम्हारी
बिटिया को जिताने
को ? ”
‘
दुर्भाग्य ’
हम दोनों
के लिए ही ‘ दूर भाग ’ वाली चीज
बन चुका था । एक
निरर्थक बहस जारी
थी । रिक्शेवाला बोला – “ नहीं सेठ जी
, हम भला
क्यों चाहेंगे कि
आप हारो । पर ई
भी तो समझिए
अगर आप रोज
रेलगाड़ी के बजाय
बस से जाते
होते तो आपके
जाने का रस्ता
और ही होता
और हम वहाँ
आपको छोड़्ते होते
तो शायद वहाँ
बिल्ली भी रस्ता
न काटती । पर स्टेशन
तो आप ही
के कारण आना
हो रहा है
न इसईलिए दुर्भाग्य
तो आप ही
का हुआ । ”
अब तक स्टेशन भी आ चुका
था । पर दुर्भाग्य को हम अपनाने
को कतई तैयार
नहीं थे । सो हम
निर्णायक वाक्य बोले – “ मिस्टर रिक्शेवाले , एक बात अच्छे
से समझ लो । अगर
आज तुमने दुर्भाग्य
हमें दिया तो
कल से हम तुम्हारे रिक्शे
से आना छोड़
देंगे । सोच लो या
तो दुर्भाग्य लेकर
रोज के पाँच
रुपए तुम्हारे या
फिर हमें दुर्भाग्य
देकर रोज के
पाँच रुपए गँवा
दो । फैसला तुम्हारा है ? ”
कहकर हमने
दोनों हाथ बाँधे
और टेढ़ा मुँह
करके खड़े हो गए
। रिक्शेवाले के चेहरे पर
घबराहट और मायूसी
एक साथ थी । दयनीयता
उसके चेहरे पर
झलक रही थी । बमुश्किल
10 – 15 सेकण्ड उसने
सोचा फिर कहा – “ सेठ जी , ठीक है दुर्भाग्य
हमारा ही सही । जन्म
से दुर्भाग्य ही
तो साथी रहा
है हमारा । अगर भाग्यशाली
होते तो आपकी
तरह सेठ होते । हमरी
बिटिया भी दुर्भाग्यशाली
है तभी तो
हम जैसे गरीब
के यहाँ पैदा
हुई । का हुआ जो
आज एक अपशकुन
और जुड़ गया
उसके भाग्य में । आप
अमीर लोग हो
आपको भाग्य की
जियादा जरूरत होती
है । कहीं दुर्भाग्य आपसे
छू भी गया
तो आप एक
पायदान नीचे आ
जाओगे । हम तो सबसे
निचले पायदान पर
खड़े गरीब हैं । हम
तो दुर्भाग्य की
चादर लपेटे बस
करम ही करते
हैं । आज भी दुर्भाग्य
हम अपने ऊपर
लेते हैं । हमरी बिटिया
जीतेगी तो अपने
करम से और
न भी जीती
तो क्या । एक दो
दिन अफसोस करेगी
और फिर मान
जाएगी । पर अगर आपने
रोज हमारे रिक्शे
पर बैठना बंद
कर दिया तो
उसकी इमली रोज
खाने की खुशी
खत्म हो जाएगी । ऊ
तो हम न
छीन सकते न । ”
एक गहरी
सांस लेकर उसने
अपना हाथ आगे
फैलाया और रुआंसा
होकर बोला – “ सेठ जी ! आपका
दुर्भाग्य हमने ले
लिया । अब हमरी बिटिया
की खुशी भी
दे दीजिए । ”
हमने झट
से पाँच रुपए
का सड़ा – गला सा
नोट उसकी ओर
बढ़ा दिया और
चल दिए स्टेशन
की ओर । पाँच का
नोट पाकर फिर
उसके चेहरे पर
हँसी थी और
हमारे पर तो
थी ही । आखिर पाँच
रुपए रोज पर
हमने अपना दुर्भाग्य
जो उसके मत्थे
जड़ दिया था । ऐसा
लग रहा था
जैसे किसी आफती
मेहमान को हमने
बड़े ही सस्ते
में किसी धर्मशाला
में ठहरा दिया
था । अगर हम दुर्भाग्य
को अपनाकर उसके
रिक्शे से आना – जाना
छोड़ देते तो
हम दोनों ही
दु:खी रहते । पर हमने
अपने तीव्र दिमाग
से एक ऐसी
युक्ति निकाल ली
थी जिससे अब
दोनों प्रसन्न थे । इसीलिए
तो लोग हमें
सेठ जी कहते
हैं । दयालुता और बुद्धिमत्ता
की मूरत हम
जैसी और कहीं
मिल ही नहीं
सकती..............................................................................है न ?