शांति कबूतर की पीड़ा
मित्रों ,
आज मैं जब अपने घर की छत पर गया तो मैंने देखा कि एक कबूतर छत
की पिछली दीवार पर बैठा हुआ था । शांत –
सा , थका हुआ सा , एकदम सुस्त सा ।
मैंने उसे देखा तो सोचा कि उससे
पूँछू कि क्यों वो ऐसी दुर्दशा वाली स्थिति में है । अपने आपको एक
तारणहार समझकर मैं उसके पास गया और बोला – “नमस्ते कबूतर जी ! कैसे हैं आप ?”
कबूतर ने फिर भी उदासी ही दिखाई । वैसे ही सुस्त – सा पड़ा
रहा । मैंने पुन : अपना प्रश्न दोहराया । अबकि बार तीव्र स्वर में । तो वो कुछ
खिसियाते हुए सा बोला – “ अबे ठलुए मास्टर ! तुझे अब कोई काम नहीं रह गया क्या ? वैसे
तो तेरे रोज - रोज के नाटक रहते हैं कि मुझे समय नहीं मिलता ईंचार्ज हूँ , बी0एल0ओ0 भी हूँ । अब काहे मेरा आराम और अपना समय खोटी करता है वीड़ू ?”
कबूतर की महान वाणी सुनकर हम इस सोच में पड़ गये कि बताओ जी
! क्या हालत हो गयी है हम मास्टरों की अब कबूतर भी हमारा दर्द तो जानते हैं , पर
साथ ही हड़काते भी हैं , जैसे कि हमारे अ............
खैर धीरे – धीरे हमने स्वयं को संभाला और पुन : अपने
जिज्ञासु चरित्र पर उतर आये । हमने अपने
बी0 एड0 के प्रशिक्षण की कुछ युक्तियों का स्मरण किया तथा उन कबूतर जी पर
दूसरे शब्दों में अपना प्रश्न उछाला । अबकि हमारे शब्दों के योग से बना वाक्य कुछ
ऐसा था – “सफेद वाले कबूतर जी आप यहाँ कब तक बैठेंगे ?”
अब कबूतर जी और अधिक चिंतित परंतु सक्रिय अवस्था में आ गये
। बोले – “तुम क्या ये चाहते हो कि मैं अभी चला जाऊँ ?“
हम तुरंत ही बचाव की अवस्था
में आ गये और तपाक से उत्तर दिया –“ नहीं बंधु अइसा नहीं है । हम तो सिर्फ इतना ही जानना चाहते हैं कि आपकी आज ऐसी दशा क्यों है ये
कृप्या हमसे साझा करें । “
(बातों – बातों में हम कबूतर जी को बंधु भी कह चुके थे । )
कबूतर जी अब कुछ मैत्रीवत
व्यवहार की अवस्था में आ गये थे । वैसे भी अगर ना आते तो हमारी छत पर कैसे बैठे रह
पाते ? वे बोले – “ अरे क्या बताऊं यार ! अब
तो लोगों ने जीना हराम कर रखा है । हमें किसी इंसान ने कभी किसी युग में शांति का
प्रतीक घोषित किया था । युद्ध के बाद अगर दोनों पक्षों में संधि हो जाती थी तब भी
हमें उड़ाया जाता है ।
उस समय हमारी प्रजाति के लोग बड़े प्रसन्न हुए थे
कि इतने सारे पक्षियों में हमें ही ये सम्मान मिला । पर आज हम लोग बहुत दु:खी हैं ।
पहले ऐसी घटना साल में १-२ बार ही होती थीं पर अब वैश्वीकरण का दौर है । सब लोग
जान गये हैं कि युद्ध के बाद शांति कबूतर उड़ाना है । अब तो गली-मोहल्ले में भी
छोटी - मोटी लड़ाई के बाद सफेद कबूतर उड़ाने लगे हैं । “
कबूतर जी बहुत ही गम्भीर
मुद्रा में ये सब बखान कर रहे थे । पर हमने उन्हें बीच में टोक दिया – “ भैय्या तो
इसमें तो अच्छी बात है । आपकी पूछ ही बढ़ रही है । इसमें परेशान होने की क्या बात
है ? “
कबूतर जी खिसियाते हुए बोले
– “ पहले तो बीच में ही टोक रहे हो और फिर कह रहे हो कि परेशान क्यों हूँ मैं ।
अरे बताने तो दो ।“
कबूतर जी ने हमें घूरने की
अवस्था में कहा । हम तो अब कुछ भी कहने की अवस्था में नहीं थे तो चुपचाप रहकर ही आँखों
से ही कह दिया कि ठीक है । आप आगे कहें । परंतु वो चुप ही रहे और बोले - “ अरे अब
आगे की बात नहीं सुननी है क्या ? “
ये सुनकर हम थोड़ा सा
सकपकाये । हम बोले – “ अरे भाई हमने आँखों से हाँ कहा तो था । “
कबूतर जी ने ये सुनकर हमें
आड़े हाथों लिया । बोले – “ अरे मास्टर साहब आपने फैशन में फोटोक्रोमिक शीशों वाली ऐनक
लगा रखी है । किसी को आपके आँखें दिखाई ही कहाँ दे रही हैं ? हाँ नहीं तो । “
हमने फिर अपनी ऐनक उतारकर
उन्हें आँखों से संकेत दिया कि आगे बोलें ।
वे बोले – “देखो भाई ऐसा है
कि एक तो हर पक्षी की भाँति हमारी संख्या भी घट रही है पर युद्धों की संख्या बढ़ती
जा रही है । अब इससे होता ये है कि हम लोग खुले आकाश में उड़ ही नहीं पा रहे हैं ।
लोग जैसे ही हमें देखते हैं तुरंत पकड़ने की कोशिश करने लगते हैं ताकि युद्ध के बाद
या दो देशों की सीमा पर हमें उड़ा सकें । जानते हो हमें पकड़ने के बाद लोग खाने को
कुछ भी नहीं देते ताकि हमें उनसे कोई प्रेम ना हो जाये और जैसे ही वो हमें उड़ाने
की कोशिश करें । हम मिसाइल की गति से उड़ जायें । क्योंकि अगर ना उड़े तो उनका
सार्वजनिक रूप से अपमान हो जायेगा ।
जानते हो आजकल लोग युद्ध केवल मुँह से ही
समाप्त करते हैं , हृदय से नहीं । सामने वाले के प्रति लोग दुर्भावना ही रखते
हैं । इसीलिए जब हमें छोड़ना होता है और हमें छोड़ने वाले लोग हमें हाथ में पकड़ते
हैं तो वह गुस्सा हम पर ही निकालते हैं । हमें इतनी निर्दयता से पकड़ते हैं जैसे कि
अपने शत्रु की गर्दन पकड़े हों । क्रोध किसी और पर होता है और झेलना हमें पड़ता है ।
पर फिर भी हम शांति कबूतर बुरा नहीं मानते हैं । हमें बुरा तब लगता है जब हमें
शांति के प्रतीक के रूप में उड़ाने वाले लोग अपने हर वादे को भूलकर फिर २-४ महीने
में ही लड़ने लगते हैं । फिर जब वो लड़ते – लड़ते थक जाते हैं तो फिर हमें कहीं से पकड़कर
ले आते हैं और फिर उड़ा देते हैं ।
सच कहूँ तो एक बात मेरी आज
तक समझ में नहीं आई कि जब लोग हमें शांति का प्रतीक कहते हैं तो फिर हमें उड़ाकर
क्या साबित करते हैं कहीं ये तो नहीं कि वे अपने मन से भी शांति को उड़ा रहे हैं ।
खैर फिर भी हम इसी आशा में रहते हैं कि कभी तो ऐसा दिन आयेगा कि लोगों को हमारी
आवश्यकता ना पड़े । विश्व में चारों ओर शांति ही शांति हो । “
ये कहकर वो सफेद वाले कबूतर
जी अपने पंखों को फड़फड़ाने लगे । हम ने तुरंत ही एक प्रश्न ठोंका – “ कहाँ जा रहे
हो बंधु ?”
वो बोले – “ जा रहे हैं भाई
फिर से उड़ने की कोशिश करेंगे भले ही कोई हमें फिर से पकड़ ले । आखिर हम हैं तो
शांति के प्रतीक ही । जैसे तुम मास्टर लोगों की
छवि लोगों ने खराब कर रखी है । पर तुम अपना कर्त्तव्य नहीं छोड़ते हो । वैसा ही हम
भी करते हैं भाई । आशा की किरण हरदम साथ रहती है – मास्साब जी “
ये कहकर कबूतर जी खुले आकाश
में उड़ गये और हम उन्हें अपनी खुली आँखों से उड़ते हुए देख रहे थे । हम अपने को बड़ा
महान मास्टर मानते थे-पूरे विश्व को सीख देने वाले पर आज कबूतर जी हमें सीख दे गए थे
कि चाहें कितनी भी बुरी स्थिति क्यों ना हो जाये , कभी भी आशा का दामन नहीं छोड़ना
चाहिये और हम उनकी दी गई इस अमूल्य शिक्षा पर उन्हें धन्यवाद भी देना भूल गए थे ।
आप लोगों को अगर वो कबूतर जी मिलें तो हमारी ओर से उन्हें धन्यवाद अवश्य बोल दीजियेगा ।
(बातों – बातों में हम कबूतर जी को बंधु भी कह चुके थे । )
शानदार लेख
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