हम जब भी किसी भी विषय के सम्बंध में ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो हमारे पास स्रोत के रूप में होते हैं ढेरों किताबों के नाम। वर्तमान तकनीकी युग में इंटरनेट पर बिखरी सामग्री, कुछ ई-बुक्स आदि मिल सकती हैं। यदि आध्यात्मिक ज्ञान की बात करें तब तो ज्ञान के स्रोतों की कमी ही नहीं है। करोड़ों पुस्तकों से लेकर हर गली में आपको ज्ञान देने वाला मिल जाएगा। लेकिन मुद्दा ये है कि क्या इससे आपको संतुष्टि मिलेगी? मेरे विचार से नहीं। यदि किसी के दिए हुए उत्तर से आपको संतुष्टि मिल जाती है और आप उसे आँख बंद करके मान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति ने कहा है या अमुक पुस्तक में लिखा है तो सही ही होगा तब समझ लीजिए कि या तो आप अपने प्रश्न की गहराई में उतरे ही नहीं थे अथवा आप उत्तर के स्रोत पर अंधविश्वास करते हैं। दोनों ही स्थितियाँ आपके ज्ञान की यात्रा को रोक देती हैं।
वास्तव में ज्ञान तो एक अविरल धारा है। जहाँ उत्तर पाकर ठहरने का कोई अर्थ नहीं होता अपितु अनवरत यात्रा चलती रहती है। ज्ञान का अर्थ यह कतई नहीं हो कि छपा हुआ मिल गया तो सही है। अब इससे आगे कुछ सोचना ही नहीं है। इसे ही सच मानकर आगे बढ़ जाना है। छपा हुआ उत्तर पढ़ लिया या किसी का बताया हुआ उत्तर सही मान लिया तो इस घटना में उत्तर आपको मिला ही नहीं। ये सारे माध्यम तो आपको ये बताते हैं कि अमुक व्यक्ति ने अमुक परिस्थिति में प्रश्न का ये उत्तर माना। ये उत्तर उसके लिए सही हो सकता है, बहुतों के लिए सही हो सकता है लेकिन आपके लिए सही नहीं होगा। ज्ञान किसी चीज को जानना मात्र ही नहीं है। जानना प्रथम सीढ़ी हो सकती है परंतु लक्ष्य नहीं। ज्ञान तो वो है जो आपकी अंतरात्मा से निकलता है। स्रोतों से मिला उत्तर तो सूचना मात्र है। ज्ञान तो वो होगा जो सूचना पर चिंतन से मिलेगा।
बड़े बुजुर्ग कहते आए हैं कि सुनने से नहीं गुनने से होगा और यह अक्षरशः सत्य है। किसी भी सूचना को जब तक आप अपनी कसौटी पर नहीं कसते तब तक ज्ञान नहीं बनेगा। हर सूचना को कसौटी पर कसना आवश्यक है क्योंकि सूचना गलत भी हो सकती है और सही भी। अब प्रश्न ये उठता है कि अगर गलत सूचना के आधार पर चिंतन और निष्कर्ष को सत्य मान लिया जाए तो क्या प्राप्त उत्पाद ज्ञान होगा। बिल्कुल होगा क्योंकि जब तक आपको बोध नहीं है कि सूचना ही गलत थी तब तक ज्ञान सही ही होगा। जब बोध हो जाएगा तब आपके सामने एक तैयार निष्कर्ष होगा कि इस गलत सूचना से ये निष्कर्ष निकला है। तब अगले चिंतन से निष्कर्ष इससे भिन्न ही आना चाहिए।
वास्तव में ज्ञान तो एक अविरल धारा है। जहाँ उत्तर पाकर ठहरने का कोई अर्थ नहीं होता अपितु अनवरत यात्रा चलती रहती है। ज्ञान का अर्थ यह कतई नहीं हो कि छपा हुआ मिल गया तो सही है। अब इससे आगे कुछ सोचना ही नहीं है। इसे ही सच मानकर आगे बढ़ जाना है। छपा हुआ उत्तर पढ़ लिया या किसी का बताया हुआ उत्तर सही मान लिया तो इस घटना में उत्तर आपको मिला ही नहीं। ये सारे माध्यम तो आपको ये बताते हैं कि अमुक व्यक्ति ने अमुक परिस्थिति में प्रश्न का ये उत्तर माना। ये उत्तर उसके लिए सही हो सकता है, बहुतों के लिए सही हो सकता है लेकिन आपके लिए सही नहीं होगा। ज्ञान किसी चीज को जानना मात्र ही नहीं है। जानना प्रथम सीढ़ी हो सकती है परंतु लक्ष्य नहीं। ज्ञान तो वो है जो आपकी अंतरात्मा से निकलता है। स्रोतों से मिला उत्तर तो सूचना मात्र है। ज्ञान तो वो होगा जो सूचना पर चिंतन से मिलेगा।
बड़े बुजुर्ग कहते आए हैं कि सुनने से नहीं गुनने से होगा और यह अक्षरशः सत्य है। किसी भी सूचना को जब तक आप अपनी कसौटी पर नहीं कसते तब तक ज्ञान नहीं बनेगा। हर सूचना को कसौटी पर कसना आवश्यक है क्योंकि सूचना गलत भी हो सकती है और सही भी। अब प्रश्न ये उठता है कि अगर गलत सूचना के आधार पर चिंतन और निष्कर्ष को सत्य मान लिया जाए तो क्या प्राप्त उत्पाद ज्ञान होगा। बिल्कुल होगा क्योंकि जब तक आपको बोध नहीं है कि सूचना ही गलत थी तब तक ज्ञान सही ही होगा। जब बोध हो जाएगा तब आपके सामने एक तैयार निष्कर्ष होगा कि इस गलत सूचना से ये निष्कर्ष निकला है। तब अगले चिंतन से निष्कर्ष इससे भिन्न ही आना चाहिए।
कोई आपको किसी सार्वभौमिक सत्य की सूचना दे कि दो और दो चार होते हैं तब भी बिना चिंतन उसे स्वीकारना नहीं। अपनी कसौटी पर परखना अवश्य, संदेह अवश्य करना कि क्या वास्तव में दो और दो चार ही होते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि वर्षों से कुछ गलत चीज को लोग अपनाए बैठे हों। उसके बाद आप भले ही इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि दो और दो चार होते हैं। लेकिन इस बात को अपने चिंतन से गुजारकर ही सत्य मानें। ये न सोचें कि उत्तर तो वही था ये चिंतन तो व्यर्थ था, यूँ ही समय व्यर्थ हुआ। नहीं व्यर्थ कुछ भी नहीं हुआ। जैसे बाजार से नमक की थैली उधार लाते हैं तब भी नमक वही है और जब मोल लाते हैं तब भी नमक वही है। वैसा ही यहाँ है पहले आपने मूल्य नहीं चुकाया था इसलिए मन में पीड़ा थी। अब मूल्य चुका दिया है तो नमक पर आपका अधिकार है। बस चिंतन से यही मूल्य चुकाना है।
अपने इतिहास में जाएँगे तो पाएँगे कि बड़े – बड़े विद्वानों, संतों, महात्माओं ने भी अपने से बड़े – बड़े विद्वानों, संतों, महात्माओं की शिक्षाओं को आँख बंद करके नहीं माना। यदि ऐसा होता तो आज चार वेदों से आगे हम बढ़ नहीं पाते। न कोई नया सृजन होता न ही चिंतन। बस रटे जा रहे होते और बिना चिंतन बस ठूँठ बनकर रह जाते। महावीर स्वामी ने किसी अंधभक्ति में न पड़कर अपने अंदर ज्ञान खोजा, बुद्ध के सामने पुराने ज्ञान को रटने का अवसर था। न रटते तो महावीर का ही अनुसरण कर लेते लेकिन उन्होंने भी अपने अंदर ही खोजा। उसके बाद जो हुए उन सबने भी मात्र महावीर और बुद्ध को ही सत्य न माना। कुछ उनसे पुराने स्रोतों पर विश्वास करते रहे कुछ उनसे भी पुरानों पर। अंधभक्ति न करके अपने मार्ग खोजना ही उनकी उपलब्धि थी और आपकी भी वही होगी।
किसी विद्वान या पुस्तक की बातों पर अविश्वास करने से कोई पाप नहीं होता। हाँ मुड़कर उस ओर न देखने से आपकी अज्ञानता झलकती है। अविश्वास जमकर कीजिए लेकिन जानने के बाद ही अविश्वास कीजिए। किसी पुस्तक को बंद करके अविश्वास तो नफरत कहलायी। पूरा पढ़िए, जानिए और फिर मन न माने तब अविश्वास कीजिए। तभी अविश्वास की सार्थकता है।
कई बार मन में प्रश्न उठता है कि इतने परम विद्वान एकमत क्यों नहीं थे? सबके पृथक – पृथक मार्ग क्यों थे? अब इनमें से सही कौन – सा है? एक बार पता चल जाए तो बाकियों को तिलांजलि दें और उनके मार्ग पर चला जाए। तो ध्यान रहे कि मत भिन्नता रहेगी, सदैव रहेगी। जब आप स्वयं को जान जाएँगे तो एक पृथक ही मत बन जाएगा क्योंकि जिस सत्य के पीछे भाग रहे हो उसका निर्माण न कभी हुआ है न ही कभी होगा। वो तो परिवर्तनशील है।
किसी विद्वान या पुस्तक की बातों पर अविश्वास करने से कोई पाप नहीं होता। हाँ मुड़कर उस ओर न देखने से आपकी अज्ञानता झलकती है। अविश्वास जमकर कीजिए लेकिन जानने के बाद ही अविश्वास कीजिए। किसी पुस्तक को बंद करके अविश्वास तो नफरत कहलायी। पूरा पढ़िए, जानिए और फिर मन न माने तब अविश्वास कीजिए। तभी अविश्वास की सार्थकता है।
कई बार मन में प्रश्न उठता है कि इतने परम विद्वान एकमत क्यों नहीं थे? सबके पृथक – पृथक मार्ग क्यों थे? अब इनमें से सही कौन – सा है? एक बार पता चल जाए तो बाकियों को तिलांजलि दें और उनके मार्ग पर चला जाए। तो ध्यान रहे कि मत भिन्नता रहेगी, सदैव रहेगी। जब आप स्वयं को जान जाएँगे तो एक पृथक ही मत बन जाएगा क्योंकि जिस सत्य के पीछे भाग रहे हो उसका निर्माण न कभी हुआ है न ही कभी होगा। वो तो परिवर्तनशील है।
अब प्रश्न ये उठ जाता है कि फिर कैसे पता चले कि हमें जो ज्ञान हुआ है वो सही है भी कि नहीं। उसका एक ही उत्तर है और वो ये कि ये ज्ञान यदि आपको संतुष्ट करता है। यदि यह ज्ञान कल्याणकारी है तो निश्चित ही ज्ञान है। भले ही वो और मतों से पूर्णतया भिन्न है। भले ही वो किसी पुस्तक में नहीं लिखा लेकिन उससे संतुष्टि और कल्याण के उद्देश्य पूर्ण हो रहे हैं तो वो ज्ञान है।
एक बार भान हो जाए कि ज्ञान हो चुका है तब भी रूकना नहीं है अपितु चिंतन में लगे रहना है। अपने ही ज्ञान को मथते रहना है। क्या पता कि कुछ छूट गया हो या कुछ नया निकल आए जो पहले से भी अधिक आनन्द की अनुभूति कराए।
तो जाइए सूचनाएँ समेटिए और और ज्ञान की भट्टी में पकाना आरम्भ कीजिए।
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