कई साल पुरानी बात है। लेकिन उतनी
भी पुरानी नहीं है जब समाचार पत्र नहीं छपते थे। उतनी पुरानी तो है जब सोशल मीडिया
नहीं था लेकिन उतनी पुरानी कतई नहीं है जब पहिए का आविष्कार नहीं हुआ था। अब कब की
है और कब की नहीं है इसमें समय मत खराब करिए बल्कि बात का मजा लीजिए। हाँ तो बात
ये है कि एक दिन महानपुर गाँव के पनकी और बनवारी बोरों में अनाज भरकर बैलगाड़ियों
से लेकर सवेरे – सवेरे शहर में बेचने जा रहे थे।
जाते – जाते रास्ते में रामगंगा नदी पड़ी। नदी पर वो भीड़ थी, वो भीड़ थी मानो आसमान में तारे
गिनना आसान हो और यहाँ आए लोगों को गिनना कठिन। भयंकर ठण्ड थी लेकिन लोग नहाने के
लिए पानी में कूदे जा रहे थे।
बैलगाड़ियों की चाल धीमी हो चुकी थी क्योंकि उनके मालिक रामगंगा पर ये दृश्य
देखने में व्यस्त थे। इतनी भीड़ बनवारी को हजम नहीं हो रही थी और उसके मुँह से
प्रश्न फूट ही पड़ा – “पनकी, एक बात तो बतावो ऐता आदमी नदी किनारे काहे इकट्ठा हुआ
है कि दुई आँखें कम पड़ रही हैं इन्हें एक साथ देखने में। न काहू का बियाह लग रहा
है न ही मातम तो काहे इत्ता रेला है?”
पनकी ने कहा – “रेला नहीं भैय्या मेला है मेला।
अब अपने गाँव में तो कोई धर्म है नहीं लेकिन देश – दुनिया में सब कोई न कोई धर्म मानते हैं। आज मकर संक्रांति का त्योहार है।
आज के दिन लोग दान – पुण्य को अच्छा मानते हैं और
स्नान करते हैं।”
बनवारी ने कहा – “अच्छा जे बात है। वैसे पनकी हम लोग
भोर ही भोर में अनाज बेचने आ गए हैं। मंडी भी न खुली होगी तो तनिक इन लोगन को पास
में जाकर देख लें। मेला देखकर रुका न जा रहा।”
पनकी ने कहा – “चल तो सकते हैं भैय्या लेकिन इन
बैलगाड़ियों का क्या करें? नीचे ढलान है और बैलगाड़ियाँ उतर
नहीं सकतीं। यहाँ बैलगाड़ियाँ उतारीं तो समझ लो अलटी – पलटी हो जाएगी।”
बनवारी ने कहा – “अरे! तो बैलगाड़ी लेकर चलने को कौन
कह रहा है? ऐसे ही चलते हैं। इन्हें हियाँ
बाँध देते हैं।”
मन तो पनकी का भी हो रहा था मेला देखने का। इसलिए दोनों ने पीपल के पेड़ में
बैलगाड़ियाँ बाँधी और ढलान से नीचे मेला देखने उतर गए। चारों ओर का दृश्य देखकर
बनवारी प्रफुल्लित हो उठा और बोला – “वाह! मजा आ गया पनकी नदिया किनारे
ठण्डी – ठण्डी हवा चल रही है। लोगबाग कितने प्रसन्न हैं और
बच्चन को देखो कैसे खुशी से खेल रहे हैं।”
पनकी ने कहा – “हाँ भैय्या ई देखो हलवाईयों की
कैसी मौज निकल पड़ी है कोई जलेबी बना रहा है तो कोई पकौड़ी। छोला – भटूरा भी बन रहा है और समोसा भी। कुल मिलाकर मेले से
सबको खुशी मिल रही है। अच्छा हुआ बैलगाड़ियों को बाँधकर देखने आ गए मन हर्षित हो
गया।”
तभी एक आदमी चिल्लाता हुआ और भागता हुआ नहीं भागता हुआ और चिल्लाता हुआ या
यूँ कहें कि एकसाथ भागते और चिल्लाते हुए जा रहा था कि ‘भागो – भागो, बैलवा पागल हो गए हैं।’
पनकी और बनवारी ने देखा कि चार बैल बड़ी तेजी से भागे चले आ रहे हैं। सब इधर
– उधर भाग रहे थे। वे दोनों भी बचे। इधर चार बैलों ने
मेले में तूफान मचा दिया। बैल ठेलों और दुकानों में टक्कर मारे जा रहे थे। जिन
जलेबियों को पेट में जाना था वो जमीन में गिरी पड़ी थीं जिन पकौड़ियों को मुँह का
स्वाद चटपटा करना था वो स्वयं धूल चाट रही थीं। गोलगप्पे भी भच्चा हो चुके थे।
जब पनकी और बनवारी सँभले तो पनकी ने कहा – “दैय्या रे! कितना नुकसान हो गया? देखो न बनवारी भैय्या बच्चे कैसे बिलख रहे हैं? बेचारे जिस खाने पर लार टपका रहे थे वो खाना ही गिर
गया।”
बनवारी ने कहा – “वो तो ठीक है लेकिन जे बैल कुछ
देखे – दिखाए से क्यों लग रहे थे?”
तभी वहाँ खड़े एक आदमी ने कहा – “अरे! हुआँ ऊपर दो बैलगाड़ी बँधी
हुई थीं कोई नशेड़ी तापन खातिर उधर आग लगाया जिससे बैल रस्सी तोड़ भागे।”
पनकी और बनवारी ने बैलगाड़ियों की ओर देखा तो पाया कि उनकी बैलगाड़ियाँ अब
बैलविहीनगाड़ियाँ बन चुकी थीं और ढलान के कारण नीचे लुढ़की जा रही थीं। पनकी ने कहा – “बनवारी भैय्या, बैल देखे – दिखाए इसलिए लग रहे थे क्योंकि
अपने ही बैल थे और गाड़ियाँ देखो कैसे नीचे लुढ़की जा रही हैं।”
दोनों बैलविहीनगाड़ियों की ओर भागे लेकिन होनी को कौन रोक सकता था। वो तेजी से लुढ़कते हुए आ
रही थीं। नीचे दोनों आकर एक – दूसरे से बुरी तरह टकरायीं और
उनके बोरे खुल गए। बनवारी के कद जैसे बड़े – बड़े चावल और पनकी के कद सी छोटी – छोटी दाल आपस में मिल गए।
बनवारी ने कहा – “हो गया सत्यानाश। अब क्या होगा
पनकी? बोरे तो खुले ही खुले साथ ही दाल और चावल बिना पके ही
एक – दूसरे में मिल गया।”
पनकी ने कहा – “वो तो है बनवारी भैय्या लेकिन
हमें तो इन मासूम लोगों पर बड़ी दया आ रही है। न जाने कितनी दूर – दूर से आए होंगे। किसी पर कुछ खाने को होगा भी कि
नहीं? छोटा – छोटा बच्चा लोग रो रहे हैं। ऊपर
से दुकानदारों का नुकसान अलग हुआ। आग कौनू जलाया हो लेकिन नुकसान करने वाले बैल तो
अपने ही थे न?”
बनवारी ने कहा – “सही कह रहे हो पनकी लेकिन अब इस
बेमहानी के दाग से पीछा कैसे छुड़ाएँ? रेवती दादा को पता चलेगा तो
कहेंगे कि महानपुर का नाम डुबा आए।”
पनकी ने सांत्वना देते हुए कहा – “चिंता न करो बनवारी भैय्या हमें
महानता की एक बात सूझ रही है।”
बनवारी ने कहा – “जल्दी उगलो पनकी।”
पनकी ने आवाज लगाकर रोते हुए ठेलेवालों और दुकानदारों को एकत्र किया और
बुलंद आवाज में कहा – “भाईयों हम हैं महानपुर के पनकी और हमरे साथ हैं
बनवारी भैय्या। अभई जिन बैलों के कारण अफरा-तफरी मची थी ऊ हम दोनन के ही थे।”
इतना सुनते ही लोग आक्रोशित हो गए, एक बोला – “अरे! तो ठीक से बाँधना चाहिए था
न। देखो कित्ता नुकसान कर दिए हैं।”
दूजा बोला – “हमको तो ऊ कम और तुम जियादा बैल
मालूम पड़ते हो अईसन बेवकूफी कोई करता है क्या?”
बनवारी ने पनकी से कहा – “हम समझ रिए हैं कि हम लोगन के
कारण आप लोगन को परेशानी हुई है। इसलिए महानता को साक्षी मानकर हम आप लोगन से
क्षमा माँगते हैं और इन दाल – चावल को आपको समर्पित करते हैं।”
एक हलवाई बोला – “पर इन दाल – चावल का करेंगे क्या? ये तो एक – दूसरे में ऐसे मिले जा रहे हैं
जैसे पेड़ पर बेल। इन्हें अलग करते – करते तो शाम गुजर जाएगी।”
पनकी ने कहा – “हम जानत हैं भैय्या कि बहुत हई
बुरी तरह से मिल गए हैं। लेकिन का कर सकत हैं। पकने के बाद तो वैसे भी दाल – चावल मिलाने पड़ते हैं। अब जे कच्चे ही मिल गए हैं तो
आप लोग ही कछु युक्ति निकाली और इनको जोड़-गट्ठके कछु बनाओ।”
अब हलवाईयों में आपस में कुछ मंत्रणा हुई कोई कह रहा था कि कुछ नहीं बन सकता तो किसी ने कहा कि कुछ ऐसा बनाना पड़ेगा जो तुरंत बन जाए। ग्राहक भूखे हैं और खाने को एकदम तैयार हैं। तो कोई बोला कच्चे ही बाँट देते हैं। तभी एक रचनात्मक हलवाई बोला – “खाने का माल भले ही गिर गया हो लेकिन आग जलाने का सामान सबका ठीक है। मेरी समझ में तो ये आ रहा है कि बर्तन में घी नमक डालो और चावल की तरह इन्हें आँच पर पकने दो। जितनी देर में ये बनेगा उतनी देर में लोग भूख से इतने बेहाल हो चुके होंगे कि हपककर खाएँगे।”
इस बात पर सभी ने हामी भरी। फिर जिसका जितना नुकसान हुआ था उसी अनुपात में
दाल – चावल का मिश्रण ले गया और फटाफट बर्तन को आँच दिखा
दी। पनकी और बनवारी ये सब देखकर बड़े संशय में थे कि हलवाईयों ने अगर बेकार खाना
बनाया तो पिटना पड़ेगा हमें। खैर वो समय भी आया जब खाना तैयार था। अब स्नान करके
लौटे लोगों की भीड़ ने भोजन में हुए इस अभूतपूर्व प्रयोग को चखा और चखते ही इसके
मुरीद हो गए। साधारण से दाल और चावल का मिश्रण था लेकिन उसमें घुली महानता की
भावना से ये मिश्रण उन्हें इतना अच्छा लग रहा था मानो छप्पन पकवानों में भी इतना
स्वाद न हो। क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी चटखारे लेकर खा रहे
थे।
बनवारी ने पनकी के कंधे पर हाथ रखकर कहा – “बच गए पनकी, शुक्र है कि तुम साथ थे। वर्ना आज
तो महानपुर का नाम ही खराब हो जाता। क्या दिमाग चलाया तुमने और ऐसा अनूठा पकवान
बनवा दिया। लेकिन इस महान पकवान को कहेंगे क्या?”
पनकी ने कहा – “भैय्या इस पकवान को खाकर सबके
चेहरे ‘खि’ल गए हैं, सब ‘च’टखारे लेकर खा रहे हैं और सबको ब‘ड़ी’ अच्छी लग रही है इसलिए इस नए पकवान का सबसे सही नाम रहेगा –
खिचड़ी।”
...और इस प्रकार मकर संक्रांति पर खिचड़ी बनने की परम्परा का आरम्भ हुआ।
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वाह बड़े ही रोचक ढ़ंग से खिचड़ी बना दी। बहुत ही अच्छा लिखा है,सीधी सरल भाषा में अंत तक पढ़ने में रोचक लगी। बहुत बहुत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया खिचड़ी बनी महानपुर वाले है ही महान ☺
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