वो घर की लाडली थी। वो पैदा तो गरीब घर में हुई थी। लेकिन सौभाग्यशाली थी कि उसके घरवाले उसकी हर माँग पूरी करते थे। वो जो खिलौना माँगती उसे लाकर देते। जो खाने को माँगती उसे खिलाते। लेकिन इन खर्चों के कारण महीने की बचत एक रुपए का सिक्का थी। उसके पिताजी कैसे भी करके महीने में वो एक रुपए का सिक्का बचाते थे और उसी लड़की को यह कहकर दे देते थे कि इसे गुल्लक में रख लो। वो लड़की धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। जैसे-जैसे बड़ी हुई वैसे-वैसे माँग भी बढ़ती गयी। कभी ये चाहिए, कभी वो। उसके पिता ये माँगें पूरी करते-करते मेहनत के बोझ तले दबे जा रहे थे। एक दिन पिता ने उससे कहा – “ये लो बेटी ये सिक्का गुल्लक में डाल दो।”
पुत्री ने कहा – “पिताजी ये सिक्का मैं गुल्लक में नहीं डालूँगी। मुझे अपने लिए थोड़े और रुपए चाहिए।”
पिता ने कहा – “पर बेटी अब देने को कुछ भी नहीं है। बस यही बचत है। इसे गुल्लक में डाल दो।”
पुत्री ने कहा – “पिताजी मैं कुछ नहीं जानती। मुझे चाहिए तो चाहिए।”
पिता ने असमर्थता जता दी – “बेटी मैं इससे अधिक मेहनत नहीं कर सकता। सब चीजें महँगी हो रही हैं। जैसे-तैसे महीने में ये एक सिक्का बचा पाता हूँ। अब इस सिक्के में तुम्हारी जरूरत की चीजें आएँगी नहीं तो गुल्लक में ही डाल दो।”
माँगें पूरी होने से लड़की जिद्दी हो चुकी थी। उसे केवल अपनी इच्छाओं से मतलब था। जब उसने देखा कि माँग पूरी नहीं हो रही तो उसने कहा – “जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं होंगी तो आपकी भी पूरी नहीं होने दूँगी।”
कहकर उसने वो एक रुपए का सिक्का निगल लिया। पिताजी ये देखकर बहुत घबरा गए। उन्होंने कहा – “बेटी तुमने भावावेश में ये क्या कर डाला? एक तो मेरी बचत को निगल गयीं। दूजे अपने ही स्वास्थ्य को हानि पहुँचा दी। बिना ये सोचे कि इसके क्या दुष्परिणाम होंगे।”
लेकिन बेटी सिक्का निगल चुकी थी और सिक्का शायद उसकी साँस नली में फँस गया था। उसे बेचैनी होने लगी। घबराए पिता ने तुरन्त डॉक्टर को फोन किया। जब तक डॉक्टर आया पिता परेशान रहे और कैसे भी सिक्का उगलवाने का प्रयास करते रहे। लेकिन हल न निकला। जब डॉक्टर आया तो उसने लड़की को सिर के बल खड़ा किया। कभी पीठ से ठोंका, सिक्का नहीं निकल रहा था। अंततः उन्होंने उसके हलक में हाथ डाला और लड़की ने एक जोरदार उल्टी की। उल्टी के साथ सिक्का भी बाहर आ चुका था। सिक्का बाहर आते ही पिता की जान में जान आयी कि बेटी बच जाएगी।
डॉक्टर सफलतापूर्वक सिक्का बाहर निकालने की कला से फूला नहीं समा रहा था। लेकिन डॉक्टर कोई संत तो था नहीं। वो पैसे के लिए काम करता था। उसने अपनी फीस माँगी। फीस सुनकर पिता के होश उड़ गए। उसके पास इतने पैसे ही नहीं थे। अंततः उसने गुल्लक तोड़ी और उसके सारे पैसे डॉक्टर को दे दिए। लेकिन ये पैसे डॉक्टर की फीस से कम थे। डॉक्टर ने बची हुई फीस का कर्जा उतारने के लिए मनमाने ब्याज पर किश्त बाँध दी।
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डॉक्टर के जाने के बाद पिता ने कहा – “बेटी देखा तुमने अपनी नासमझी से कितना नुकसान किया। मैंने तुम्हें आज समोसा खिलाया था, मटर-पनीर खिलाया था और महँगे कपड़े पहनाए थे, तुमने मेकअप भी किया था। लेकिन बचत का सिक्का निगलने से तुम्हें उल्टी करानी पड़ी। तुम्हारा खाया सारा खाना निकल गया, तुम्हारे कपड़े और मेकअप खराब हो गए। शारीरिक और मानसिक कष्ट हुआ अलग। अभी भी निढाल होकर बिस्तर पर पड़ी हो। ऊपर से अब तक की बचत और डॉक्टर को देनी पड़ी। कर्जे की किश्त भरनी पड़ेगी सो अलग। आगे से ध्यान रखना बचत के साथ कभी नादानी न करना। उसकी जगह गुल्लक होती है पेट नहीं।”
लड़की ने इस बात का कोई उत्तर न दिया। वो चुपचाप लेटी रही और मन ही मन अपने पिता को कोसती रही क्योंकि उसने इस घटना को इस प्रकार से समझा था कि एक रुपए के सिक्के के लिए उसके पिता ने उसे उल्टी कराकर कपड़े, मेकअप खराब किए और बिस्तर पकड़वा दिया। समय बढ़ता गया। लड़की ने पुनः सिक्का तो नहीं निगला लेकिन मन ही मन कुढ़ती रही।
फिर एक ऐसा दिन आया जब उसे एक बड़ा पद मिला। उसने पाया कि इस दुनिया में उसके पिता जैसे कई लोग हैं। जो महीने में एक सिक्का बचाते हैं और गुल्लक में डालते हैं। उसे ये कतई सहन नहीं हुआ कि लोग उसे फिजूलखर्ची के लिए पैसे देने के बजाय गुल्लक में डालते हैं। इसलिए उसने उन सबके बचत के सिक्के इकट्ठे किए, उन्हें गलाकर एक बड़ा सा सिक्का बनवाया और उस सिक्के को निगल गयी। अब लोगों में एक ही चर्चा है कि इसकी नासमझी अभी भी गयी नहीं। सिक्का तो ये निगल गयी है न जाने कब और कितनी उल्टी करेगी कि सब खाया - पिया, रंग - रोगन किया हुआ निकल जाएगा। उससे अधिक चिंता तो उस डॉक्टर की है जो गुल्लक के पैसे भी ले जाएगा और कर्जे का बोझ भी दे जाएगा। लेकिन लड़की को चिंता नहीं है वो तो इसे उपलब्धि मानकर डंका पीट रही है कि मैं
सिक्का निगल गयी
पुत्री ने कहा – “पिताजी ये सिक्का मैं गुल्लक में नहीं डालूँगी। मुझे अपने लिए थोड़े और रुपए चाहिए।”
पिता ने कहा – “पर बेटी अब देने को कुछ भी नहीं है। बस यही बचत है। इसे गुल्लक में डाल दो।”
पुत्री ने कहा – “पिताजी मैं कुछ नहीं जानती। मुझे चाहिए तो चाहिए।”
पिता ने असमर्थता जता दी – “बेटी मैं इससे अधिक मेहनत नहीं कर सकता। सब चीजें महँगी हो रही हैं। जैसे-तैसे महीने में ये एक सिक्का बचा पाता हूँ। अब इस सिक्के में तुम्हारी जरूरत की चीजें आएँगी नहीं तो गुल्लक में ही डाल दो।”
माँगें पूरी होने से लड़की जिद्दी हो चुकी थी। उसे केवल अपनी इच्छाओं से मतलब था। जब उसने देखा कि माँग पूरी नहीं हो रही तो उसने कहा – “जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं होंगी तो आपकी भी पूरी नहीं होने दूँगी।”
कहकर उसने वो एक रुपए का सिक्का निगल लिया। पिताजी ये देखकर बहुत घबरा गए। उन्होंने कहा – “बेटी तुमने भावावेश में ये क्या कर डाला? एक तो मेरी बचत को निगल गयीं। दूजे अपने ही स्वास्थ्य को हानि पहुँचा दी। बिना ये सोचे कि इसके क्या दुष्परिणाम होंगे।”
लेकिन बेटी सिक्का निगल चुकी थी और सिक्का शायद उसकी साँस नली में फँस गया था। उसे बेचैनी होने लगी। घबराए पिता ने तुरन्त डॉक्टर को फोन किया। जब तक डॉक्टर आया पिता परेशान रहे और कैसे भी सिक्का उगलवाने का प्रयास करते रहे। लेकिन हल न निकला। जब डॉक्टर आया तो उसने लड़की को सिर के बल खड़ा किया। कभी पीठ से ठोंका, सिक्का नहीं निकल रहा था। अंततः उन्होंने उसके हलक में हाथ डाला और लड़की ने एक जोरदार उल्टी की। उल्टी के साथ सिक्का भी बाहर आ चुका था। सिक्का बाहर आते ही पिता की जान में जान आयी कि बेटी बच जाएगी।
डॉक्टर सफलतापूर्वक सिक्का बाहर निकालने की कला से फूला नहीं समा रहा था। लेकिन डॉक्टर कोई संत तो था नहीं। वो पैसे के लिए काम करता था। उसने अपनी फीस माँगी। फीस सुनकर पिता के होश उड़ गए। उसके पास इतने पैसे ही नहीं थे। अंततः उसने गुल्लक तोड़ी और उसके सारे पैसे डॉक्टर को दे दिए। लेकिन ये पैसे डॉक्टर की फीस से कम थे। डॉक्टर ने बची हुई फीस का कर्जा उतारने के लिए मनमाने ब्याज पर किश्त बाँध दी।
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लड़की ने इस बात का कोई उत्तर न दिया। वो चुपचाप लेटी रही और मन ही मन अपने पिता को कोसती रही क्योंकि उसने इस घटना को इस प्रकार से समझा था कि एक रुपए के सिक्के के लिए उसके पिता ने उसे उल्टी कराकर कपड़े, मेकअप खराब किए और बिस्तर पकड़वा दिया। समय बढ़ता गया। लड़की ने पुनः सिक्का तो नहीं निगला लेकिन मन ही मन कुढ़ती रही।
फिर एक ऐसा दिन आया जब उसे एक बड़ा पद मिला। उसने पाया कि इस दुनिया में उसके पिता जैसे कई लोग हैं। जो महीने में एक सिक्का बचाते हैं और गुल्लक में डालते हैं। उसे ये कतई सहन नहीं हुआ कि लोग उसे फिजूलखर्ची के लिए पैसे देने के बजाय गुल्लक में डालते हैं। इसलिए उसने उन सबके बचत के सिक्के इकट्ठे किए, उन्हें गलाकर एक बड़ा सा सिक्का बनवाया और उस सिक्के को निगल गयी। अब लोगों में एक ही चर्चा है कि इसकी नासमझी अभी भी गयी नहीं। सिक्का तो ये निगल गयी है न जाने कब और कितनी उल्टी करेगी कि सब खाया - पिया, रंग - रोगन किया हुआ निकल जाएगा। उससे अधिक चिंता तो उस डॉक्टर की है जो गुल्लक के पैसे भी ले जाएगा और कर्जे का बोझ भी दे जाएगा। लेकिन लड़की को चिंता नहीं है वो तो इसे उपलब्धि मानकर डंका पीट रही है कि मैं
सिक्का निगल गयी
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