गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
दो
दिन संक्षिप्त रुदालियाँ ,
फिर
विस्तृत खुशहालियाँ ।
पहले
दिन टूटें चूड़ियाँ ,
तेरहवें
दिन बनें पूड़ियाँ ।
मृत्यु
पर सजे बँटवारा मंच ,
रचित
हों नित नवीन प्रपंच ।
रिश्तों
के दरकें विश्वास ,
चारों
ओर धन की आस ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
नौकरी
, मकान और व्यापार ,
होएं
कई - कई हिस्सेदार ।
दिखें
दुनिया के अजीब रंग ,
जर
- जमीन को होए जंग ।
भूला
प्रेम भाव को चित्त ,
चर्चा
में है केवल वित्त ।
सभ्यता
प्रदर्शन में थे मगन ,
हुआ
उनका चरित्र नग्न ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
भूले
वृक्ष की निर्मल छाया ,
चर्चा
केंद्र में धन की माया ।
जड़ों
में जिसने दिया न जल ,
तोड़ना
चाहें अमूल्य फल ।
लालच
बनाए व्यवहार वक्र ,
रचे
मनुष्य अनेक कुचक्र ।
कर रहे वो गणनाएँ सरल ,
किसको
कितना मिले तरल ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
उसने
बसाई एक नन्हीं सृष्टि ,
हो
रही जिसमें अलगाव वृष्टि ।
एक
परिवार और एक रक्त ,
हुआ
खण्ड - खण्ड विभक्त ।
ओढ़
लालच , भावनाएँ सुप्त ,
योजनाएँ
गुप्त , प्रेम विलुप्त ।
इसके
तर्क , उसके कुतर्क ,
घर
बना , अब एक नर्क ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
मृतक
की वस्तुएँ फैलाएँ दोष ,
इसके
दान का करो उद्घोष ।
पुरानी
खटिया , पुराने कपड़े ,
इनके
लिए , कौन झगड़े ।
पुरानी
चद्दर का भी किया दान ,
रह
गए जमीन और मकान ।
पुरानी
वस्तुएँ बड़ी दोष युक्त ,
आभूषण
, संपत्ति दोष मुक्त ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
बँटवारे
में हो , ये भी चर्चा ,
किसने
कितना किया खर्चा ।
न
एक तिहाई न आधा - आधा ,
मैं
बड़ा , मेरा हिस्सा ज्यादा ।
तुम
लड़की और तुम दामाद ,
तुम
क्यों कर रहे विवाद ।
ब्याह
हुआ अब हुईं पराई ,
क्यों
संपत्ति को नजर उठाई ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
मुझको
चाहिए मेरा अधिकार ,
तू
परदेसी तुझ पे धिक्कार ।
मुझे
मिले सब कारोबार ,
मैं
था एकलौता सेवादार ।
मैंने
ही उसका बुढ़ापा ढोया ,
मैं
ही सबसे ज्यादा रोया ।
अब
न प्रेम , न है संयम ,
न
तू प्रथम , न मैं दोयम ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
अनेक
- अनेक हैं कामनाएँ ,
ताक
पर रखी भावनाएँ ।
अनेक
- अनेक निकले तंज ,
रिश्तों
में अब केवल रंज ।
अनेक
- अनेक हैं दावेदार ,
जिव्हा
देखो बड़ी धारदार ।
अनेक
- अनेक जागीं दुष्टताएँ ,
रसातल
में पहुँची शिष्टताएँ ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
वट
वृक्ष जब हो जाए पस्त ,
बँटवारा
बनाए सबको व्यस्त ।
वट
वृक्ष का भूल जाएँ किस्सा,
मिल
जाए जब अपना हिस्सा ।
न
कोई दवा न कोई मरहम ,
बस
सम्पत्ति ही भुलवाए गम ।
ऐ
सम्पत्ति शत् - शत् नमन ,
तेरा
प्रवेश तो दुःख गमन ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
गिरे
जो विशाल वट वृक्ष ,
होएं
अनेक वीभत्स दृश्य ।
रचनाकार
प्रांजल सक्सेना
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