कभी
न कभी तो प्रलय आनी ही है । सारी सम्पदाएँ , सभी मनुष्य एक साथ काल-कलवित होने ही हैं । एक ऐसा समय जब चारों ओर
मात्र मृत्यु ही होगी और कोई शोक मनाने वाला न होगा । यद्यपि ये कोटि वर्षों बाद
होना है , तथापि इस विषय ने मुझे लुभाया है ।
इसलिए एक कविता की रचना सहज ही हो गई है । विशेष ये है कि इसमें मैंने कल्पना की
है प्रलय के उन 2-4 मिनट में ईश्वर की क्या प्रतिक्रिया
हो सकती है । इसी प्रतिक्रिया को शब्दों में पिरोया है , जहाँ ईश्वर प्रलय को हेय दृष्टि से नहीं
देख रहे अपितु प्रलय लीला को एक नृत्य सरीखा मानते हुए नवीन सृजन के लिए एक
प्रक्रिया मात्र मान रहे हैं ।
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ,
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ।
आज
पुनः एक दुर्लभ अनुभव ,
धरती
का ये वीभत्स उत्सव ।
सम्पूर्ण
विनाश , अंतिम हलचल ,
चहुँदिश
उत्पात , घोर कोलाहल ।
प्रत्येक
गाँव और प्रत्येक शहर ,
तेरी
अठखेलियाँ और तेरा कहर ।
तू
सृष्टि का अंतिम कृत्य है ,
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ।
प्रलय
तुम्हारा श्रेष्ठ स्वभाव ,
पूर्ण
विनाश बिना भेदभाव ।
आँख
मूँदकर सबको दण्ड ,
चूर-चूर
किए सबके घमण्ड ।
पृथ्वी
का अंतिम समय आया ,
पहाड़
टूट समुद्र में समाया ।
चहुँओर
समानता का दृश्य है ,
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ।
शीत
सागर हिमाच्छादित पर्वत ,
सक्रिय
ज्वालामुखी लावा तप्त ।
एक
- दूसरे में मिले जा रहे ,
जल
- शर्करा भाँत घुले जा रहे ।
पूर्ण
समर्पण , शून्य गर्व ,
द्वेषों
से परे , अंतिम पर्व ।
कितना
सुंदर अंतिम सत्य है ,
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ।
भूकम्प
, बाढ़ से कई बार चेताया ,
पर
मनुष्य का घमण्ड कम न पाया ।
बड़े
रुतबे और ऊँचे परिचय ,
तिजोरी
में असीम धन संचय ।
ये
सारे अलंकार धरे रह गए ,
विनाश
वृष्टि में सबरे बह गए ।
अपना
संहारक स्वयं मनुष्य है ,
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ।
कलियुग
का ये अंतिम चरण ,
मनुष्य
मन में पाप को शरण ।
धरती
से लुप्त हो चुका पुण्य है ,
चरित्रवानों
की संख्या शून्य है ।
भूले
प्रेमभाव , भूले नाम हरि ,
लालच
और स्वार्थ सर्वोपरि ।
तू
अनुभव का अंतिम कथ्य है ,
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ।
आज
सर्वनाश का दो प्रमाण ,
फिर
करूँगा अद्भुत निर्माण ।
ऐ
प्रलय ये मेरा है संकल्प ,
और
श्रेष्ठ होगा नवीन कल्प ।
कण
- कण से सृष्टि सजाऊँगा ,
और
उत्कृष्ट मानव बनाऊँगा ।
प्रलय
के बाद ही तो नव्य है ,
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ,
अहा
! प्रलय क्या नृत्य है ।
रचनाकार
प्रांजल सक्सेना
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